01 फ़रवरी 2011

बिहार चुनावों का सच |भाग -2

आज से बीस साल पहले जब विधानसभा चुनाव होते थे तो ,चुनाव में बाहुबली  और पैसे कमानेवाले लोग कहीं -कहीं चुनाव लड़ा करते थे |जनता के बीच रहनेवाला आदमी भी बड़े आराम से चुनाव लड लेता था .क्योंकि नामांकन  फीस सिर्फ ढाई सौ रुपये हुआ करती थी .लोग कहीं भी कार्यालय बना लिया करते थे |अनपढ़ और गरीब आदमी भी लोकतंत्र के इस महापर्व में भाग लेकर अपने  विचारों को जनता  के सामने रख सकता था |किसी आचार संहिता की कानूनी पेंच का झंझट नहीं था की आम आदमी आतंकित होकर चुनाव लड़ने की इच्छा का त्याग कर दे |
                                                                   लेकिन चुनाव आयुक्तों ने एक भारी भरकम बयान दिया की धनबल पर लगाने के लिए हम एक महान कदम उठा रहे हैं |कभी खर्च की सीमा का निर्धारण करने का नाटक हुआ तो कभी नामांकन फीस बढ़ा कर चुनाव से गरीबों को दूर करने की कोशिश हुई |क्या चुनाव आयोग के इस नाटक से चुनावों में धनबल का उपयोग कम हुआ ?क्या आज माफिया लोग ,,पैसे वाले लोग चुनाव नहीं लड रहे हैं?देश के चुनाव आयुक्तों से मैं ये सवाल करना चाहता हूँ इतनी गन्दी साजिश आपने रचाने के लिए कितने पैसे खाए देश के माफियाओं  से?
                                                                                                   वाह रे हमारा लोकतंत्र |सुधार का नाम देकर लोकतंत्र के महापर्व को चंद लोगों के हाथ की कठपुतली बना दिया |आज एक विधानसभा के चुनाव में एक करोड़ रुपया खर्च होता है |जनता को चुनाव से पहले दारु पिलाकर वोट माँगा जाता है |पहले जो प्रत्याशी पैसे से बैनर और झंडे तथा पोस्टर छपवा कर अपनी नीतियों के प्रचार में पैसे खर्च करते थे ,लेकिन आज वही  प्रत्याशी रात के अँधेरे में मतदाताओं के पास दारू और पैसे पहुंचवाता  है|
                क्या चुनाव आयोग ये रोक सकता है ?नहीं | चुनाव आयोग ये नहीं कर सकता क्योंकि इससे भ्रष्ट लोगों के चुनाव लड़ने में परेशानी हो जायेगी |   लेकिन यहाँ तो साजिश है की कैसे आम जनता को चुनाव लड़ने से रोका जाए !  और इसीलिए दिन बी दिन पूंजीवादी होते समाज में लोकतंत्र को सिर्फ चंद लोगों के हाथों में ही सीमित करने की साजिश होती जा रही है|
                                                            

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