मैं एक ऐसे देश का नागरिक हूँ जहां न्याय के मंदिर को सबसे ज्यादा पवित्र और उम्मीद का आखिरी दरबार समझा जाता है |
ये वो सत्य है जो हमें दिखाया या पढ़ाया जाता है |
अब सुनिए वो घटना जो ऊपर कहे गए सत्य को कठगरे में खडा करता है |बनारस के पास एक गाँव है |जहां जमीं को लेकर दो पक्षों में झगड़ा हुआ |एक पक्ष ने दुसरे पक्ष की एक बूढी महिला का हाथ मारकर तोड़ दिया| महिला ने स्थानीय थाना प्रमुख से न्याय नहीं मिलने के कारण जिले की अदालत में मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी के सामने न्याय के अर्जी दाखिल की | अदालत में बहस हुई और दंडाधिकारी ने आदेश सुरक्षित रख लिया |दो दिन बाद दंडाधिकारी ने अपने पेशकार के माध्यम से महिला के पास खबर भिजवाई की दो दिन बाद तारीख है मैं उस दिन सम्मान जारी कर दूंगा लेकिन कुछ खर्चा पानी चाहिए |महिला मेरे जान पहचान की थी |उसने मुझसे सारी बात बताई |मैं हैरान होता हुआ वकील से मिला |वकील ने बताया की ये तो जरूरी है |हर केस में ऐसा होता है |बिना दंडाधिकारी को पैसा दिए किसी केस में आदेश नहीं होता है |मैं अब तक हैरान -परेशान हूँ |समझ नहीं पाता की इस बात को किसके आगे कहूँ|
अक्सर समाचार पत्रों में पढ़ता हूँ कि फलां ताकतवर आदमी को क़ानून ने नहीं बख्शा ,तो फलाँ को सजा हो गई ,वगैरह वगैरह |
लेकिन ये घटना क्या है आखिर |जहां सच सिर्फ ये है कि दंडाधिकारी बिना खर्चा पानी लिए सही आदेश भी नहीं कर सकता |
हम कौन से अंधा युग में जी रहे हैं |युग अंधा है या हम |या अंधा है क़ानून |
आइये हम सब सोचें |क्योंकि कभी न कभी हम सबका पाला अदालतों से पड़ने ही वाला है
11 मई 2010
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